Friday, 26 February 2010

हुह .. अल्फाज़

कुछ कटा.
उसी फुदतकते हुए मेंडक की
फिसलती चमड़ी पर
वोही हरे मेंडक की सफ़ेद नर्म चमड़ी पे
कुछ चुभा.


नुकीला
ज़हर से भरा
काली जुबां की नामुरादी सा
कुछ गहरा था

बदतमीजी से भी गया गुज़रा
कुछ घिनोना सा
कुछ कट गया


खून बहा
तो बोले मैण्डक है
इसमें खून कहाँ !


दर्द में बेचारा
आह बोला
तो बोले
हुह .. अल्फाज़
मैण्डक कभी सच बोला था ?
जो आज बोलेगा ?


आंसू निकले कमबख्त
तो बोले
पानी में रहता है
साला नाटक करता होगा


रहा सहा पड़ा बेचारा कांप रहा था
पत्थर पे
तो लात मार कर
पत्थर से भी गिरा दिया