Monday, 15 March 2010

ज़री

करती क्या
आज नीद नहीं आई
उलटी पलटी
करवट तय नहीं कर पाई
काली मांद से घिनोनी
एक उधार दवाई
दो- चार से क्या बनता
कुछ दर्ज़न मंगवाई
कुछ खुद गटकी ..
थोड़ी अधबुने सपनो को चटवाई

सोचा सो जाउंगी
दर्ज़न भर से
आज रात के लिए ढेर हो जाउंगी
हलक से उतरी तो कुछ चैन आया
सोचा देखा आज रात को बेवक़ूफ़ बनाया

पर रात नहीं वो सपना था
कम्बखत जिसपर कडवी दवाई बेअसर निकली
सपना था
जिसमे एक घर को खाली होता देखा
आज दोपहर जहाँ रंगीन पानी पर जा फिसली ..

आधा खुला दरवाज़ा जिसके सामने खुद को खड़ा पाया
कांप के मुड़ने लगी वापस
नीचे सीढ़ियों की तरफ
तो लगा पकड़ी गई किसी ने आवाज़ देकर बुलाया

आधा खुला था पूरा धकेल गई
जितने में मुडती
मेरी आदत
फिर लड़कपन में खेल गई

आवाज़ के अलावाएक ज़रीदार कमरा था
खाली
और एक संक्रा सा रास्ता
दुसरे खाली कमरे का
जिसका दरवाज़ा
कभी बंद नहीं होता था
काली बिल्ली के इंतज़ार में
बंद पड़ा था
एक अलमारी ..ताला लगी
ढूंढती रही
हाथ लगाया
तो राख हो गयी
एक फ्रिज पे रखी बोतल
छुआ तो छूने भर से
टूट कर खाख हो गई

अपने कमरे में
वो सारा सामान रखवाया
आज दोपहर
उस खाली घर में
टूटी बोतल के साथ
जब खुद को जागा पाया


करती क्या
आज नीद नहीं आई
उलटी पलटी
करवट तय नहीं कर पाई

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