Friday 8 January, 2010

अब ?

अब ?

अब गिला क्या ... की अब तो दर्द दिया भी नहीं

कोई रंजिश , कोई गिला कोई शिकवा भी नहीं

अब सिकुड़ कर कोई शिकन पशेमान न हुइ

ना किसी बंद दरवाज़े पे दस्तक बन कर …

खुद को खोने के गम से मैं सरोबार हुई

अब ?


अब करें क्या ... की दर्द तो दिया ही नहीं

खुद को रोई भी नहीं ,खुदा को कोसा भी नहीं

अपने दामान की बदबू से परेशां न हुई

और ये अलफ़ाज़ , बैगैरत , टूट के चुभते भी नहीं

पतझड़ हें तो क्या ? दरक्त से पत्ते झडते ही नहीं

अब ?


अब तो नर्फ्रत रंजिश या शक की उम्मीद नहीं

अब तो बस पाक मोहोब्बत , बीता प्यार सही

ना ही माफी में दबी , गुनाहों की नुमाइश ही रही

अब हम हैं तो क्या ..? हम तो अब साथ नहीं …

अब ?...