अब ?
अब गिला क्या ... की अब तो दर्द दिया भी नहीं
कोई रंजिश , कोई गिला कोई शिकवा भी नहीं
अब सिकुड़ कर कोई शिकन पशेमान न हुइ
ना किसी बंद दरवाज़े पे दस्तक बन कर …
खुद को खोने के गम से मैं सरोबार हुई
अब ?
अब करें क्या ... की दर्द तो दिया ही नहीं
खुद को रोई भी नहीं ,खुदा को कोसा भी नहीं
अपने दामान की बदबू से परेशां न हुई
और ये अलफ़ाज़ , बैगैरत , टूट के चुभते भी नहीं
पतझड़ हें तो क्या ? दरक्त से पत्ते झडते ही नहीं
अब ?
अब तो नर्फ्रत रंजिश या शक की उम्मीद नहीं
अब तो बस पाक मोहोब्बत , बीता प्यार सही
ना ही माफी में दबी , गुनाहों की नुमाइश ही रही
अब हम हैं तो क्या ..? हम तो अब साथ नहीं …
अब ?...
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